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सितंबर, 2017
 
 
साधारण तौर पर ऐसा माना जाता है कि हम उत्सव तब मनाते हैं जब कुछ शुभ होता है। तब हम अच्छे वस्त्र पहनते हैं, पकवान बनाते हैं, मित्रों को घर आमंत्रित कर उत्सव के आनंद में शामिल करते हैं, यादें बनाए रखने के लिए फोटो खींचते हैं, और फिर सब समाप्त। फिर रह जाती हैं अगले उत्सव के अवसर की प्रतीक्षा।
ओशो का प्रस्ताव एक भिन्न ही प्रकार के उत्सव के लिए है: वह है हमारा आस्तित्वगत स्वभाव-
“उत्सव बिना किसी कारण के होता है। उत्सव है क्योंकि हम हैं। हम उस तत्व से बने हैं जिसे हम उत्सव के नाम से जानते हैं। यह हमारी स्वाभाविक अवस्था है – उत्सव मनाने के लिए – उतनी ही स्वाभाविक जैसे कि वृक्षों का ऊगना, पंछियों का गीत गाना, नदियों का सागर तक पहुंचने के लिए कल-कल कर ओबहना। उत्सव एक प्राकृतिक अवस्था है।”
 
ओशो, द सीक्रेट्स ऑफ़ सीक्रेट्स, टॉक #8
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
     
 
अष्‍टावक्र : महागीता—भाग एक से नौ
युग बीते पर सत्य न बीता, सब हारा पर सत्य न हारा
जनक और अष्टावक्र के बीच जो महागीता घटी है, उसमें साधक की बात ही नहीं है; उसमें सिद्ध की ही घोषणा है; उसमें दूसरे तट की ही घोषणा है। वह आत्यंतिक महागीत है। वह उस सिद्धपुरुष का गीत है, जो पहुंच गया; जो अपनी मस्ती में उस जगत का गान गा रहा है, स्तुति कर रहा है। इसीलिए तो जनक कह सके: ‘अहो अहं नमो मह्यम्‌! अरे, आश्चर्य! मेरा मन होता है, मुझको ही नमस्कार कर लूं!’
ओशो
 
 
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माह का ध्यान
 
सब कुछ आपके अंतस में प्रविष्ट हो रहा है
किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाएं। हवा चल रही है और पत्ते सरसरा रहे हैं। वह आपको छूती है, आपके इर्दगिर्द घूमती है और निकल जाती है। लेकिन उसे सिर्फ आपके पास से मत गुजरने दें; उसे अपने भीतर घूमने दें और अपने भीतर से गुजरने दें। जरा आंख बंद कर लें, जैसे ही हवा वृक्ष के भीतर से गुजरने लगे और पत्तों की सरसराहट हो, महसूस करें कि आप भी एक वृक्ष हैं, खुला हुआ, और हवा आपके भीतर से गुजर रही है-- आपके करीब से नहीं वरन आपके ठीक भीतर से।
 
 
 
 
 
     
 
माह का आलेख
 
संन्यास जीवन की कला है
अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, अकाम और अप्रमाद संन्यास की कला के आधारभूत सूत्र हैं। और संन्यास एक कला है। समस्त जीवन की एक कला है। और केवल वे ही लोग संन्यास को उपलब्ध हो पाते हैं जो जीवन की कला में पारंगत हैं। संन्यास जीवन के पार जाने वाली कला है। जो जीवन को उसकी पूर्णता में अनुभव कर पाते हैं, वे अनायास ही संन्यास में प्रवेश कर जाते हैं। करना ही होगा। वह जीवन का ही अगला कदम है। परमात्मा संसार की सीढ़ी पर ही चढ़कर पहुंचा गया मंदिर है।
 
     
 
 
 
 
     
 
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दुनिया में धर्म बढ़ते चले गए, लेकिन धार्मिकता काम होती गई
एक पागल आदमी को खयाल पैदा हो जाए कि मैं पैगंबर हूं, मैं तीर्थकर हूं, मैं अवतार हूं, मैं फलां हूं, मैं ढिंका हूं.
 
 
लोग भी ध्यान की प्रकिया में उतरते हैं...
उन्होंने कहा: महाराजा, कृष्ण की बात पर भरोसा नहीं आ रहा था, आपकी बात पर तो अब बिलकुल भी नहीं आ सकता|
 
     
 
 
 
 
     
   
     
     
 
 
 
     
 
 
 
 
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